उत्तर प्रदेश के जनपद रामपुर में ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान रियासत हुआ करता था। देश की आजादी के बाद जहां जगह-जगह लोकतंत्र स्थापित होने के बाद आम चुनाव हुए तो वहीं रामपुर में भी नवाब मुर्तजा अली खान ने चुनावों में अपनी ताल ठोकी। जिसका नतीजा यह हुआ कि वह चुनाव जीतकर असेंबली पहुंचे हालांकि यह बात अलग है कि उनके घर से उनके बाद कोई सियासी मैदान में नहीं उतरा लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। अब एक बार फिर से उनके बेटे नवाब मुराद मियां ने सियासत में कदम रखने के संकेत देकर सियासी गलियारों में हलचल पैदा कर दी है।
नवाब मुराद मियां रामपुर में एशिया की प्रसिद्ध रजा लाइब्रेरी में बतौर सदस्य शिरकत करने आए थे। जहां उन्होंने मीडिया के द्वारा पूछे गए सवाल का जवाब देते हुए पहले तो सियासत में कदम रखने की बात से इनकार किया लेकिन कहीं ना कहीं यदि उनको किसी पार्टी से ऑफर मिलने पर उन्होंने हां भी कहा। इसके अलावा नवाब मुराद ने अपने चचेरे भाई एवं पूर्व मंत्री नवाब काजिम अली खान उर्फ नवेद मियां को नवाब के खिताब से नवाजे जाने पर ऐतराज भी जताया।
गौरतलब है कि देश की आजादी के बाद नवाब रजा अली खान द्वारा कुछ समझौतों के आधार पर अपनी रियासत का विलय भारत गणराज्य में कर दिया गया था। उस समय उनके परिवार में उनके तीन बेटे थे जिनमें सबसे बड़े बेटे नवाब मुर्तजा अली खान, उनसे छोटे बेटे नवाब जुल्फिकार अली खान और उनसे छोटे बेटे आबिद रजा खान थे। आजादी के समय अंग्रेजों द्वारा एक कानून प्रचलित था जिसके तहत किसी भी रियासत की बागडोर मौजूदा नवादा राजा के बाद उसके सबसे बड़े बेटे को ही दी जाती थी। 1947 में देश आजाद हो गया था, बावजूद इसके कथित रूप से नवाब रजा अली खान द्वारा अपने बड़े बेटे नवाब मुर्तजा अली खान को रियासत का उत्तराधिकारी घोषित किया जा चुका था।
इस तरह सियासी मैदान में बना रुतबा
वहीं उस समय लोगों को ताजा-ताजा आजादी मिली थी और सबके दिलों दिमाग पर राजशाही का खुमार कायम था। लिहाजा शाही परिवार में से नवाब मुर्तजा अली खान ने असेंबली के चुनाव में उतारकर अपनी किस्मत को आजमाया और जिसका नतीजा यह हुआ कि उनको यह जीत हासिल हुई। इस जीत से रियासत गंवाने के बाद भी नवाब खानदान का रुतबा कम ना हुआ जिसके पीछे का कारण यही था कि नवाब मुर्तजा अली खान चुनाव जीतकर असेंबली पहुंच चुके थे। उसके बाद अगले चुनावों में वह पहले तो रामपुर शहर और फिर स्वार विधानसभा क्षेत्र से कई मर्तबा विधायक चुने गए लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उनकी सियासत का भी अंत हो गया और उनके बेटे नवाब मुराद मियां ने पिता की सियासी राह को ना चुनते हुए बिजनेस को ही अपनाना पसंद किया।
हालांकि यह बात अलग है कि उनके चाचा नवाब जुल्फिकार अली खान उर्फ मिक्की मियां ने नवाब खानदान के दखल को सियासी मैदान में बनाए रखा। वह यहां से 5 बार सांसद चुने गए फिर उनके बाद उनकी पत्नी बेगम नूर बानो ने दो बार सांसद का चुनाव जीता। कुछ इसी तरह उनके बेटे नवाब काजिम अली खान उर्फ नवेद मियां ने विधानसभा चुनावों में अपनी किस्मत आजमाई। जिसका नतीजा यह हुआ कि वह पांच बार विधायक एवं एक बार मंत्री बने। सियासी ऐतबार से नवाब परिवार ज्यादातर कांग्रेस के करीब ही रहा। इसलिए उनका हमेशा ही पार्लियामेंट से लेकर असेंबली तक में अच्छा खासा दबदबा रहा है।
आपसी मतभेद महलों से निकलकर अदालत तक पहुंचे
पिछले कई दशकों से नवाब रजा अली खान के दोनों बेटों नवाब मुर्तजा अली खान एवं नवाब जुल्फिकार अली खान के परिवारों के बीच में करोड़ों की जमीन जायदाद के बंटवारे को लेकर आपसी मतभेद महलों से निकल कर अदालत की चौखट तक पहुंच गए हैं। नवाब काजिम अली खान अपनी माता व परिवार के साथ रामपुर में ही रहते हैं और उनके इस पैतृक घर को नूर महल कहा जाता है। जबकि नवाब मुराद मियां का रामपुर से बाहर रहना होता है और वह कभी-कभी यहां आते हैं।
नवाब काजिम अली खान ने जिस तरह से वर्षों तक अपने पिता एवं पूर्व सांसद नवाब जुल्फिकार अली खान की सियासी विरासत को हमेशा ही संभाले रखा है। ठीक उसी तरह से अब कहीं ना कहीं उनके तहेरे भाई एवं पूर्व विधायक नवाब मुर्तजा अली खान के बेटे नवाब मुराद मियां ने भी इशारों इशारों में ना-ना करते हुए सियासत में आने की रजामंदी दे दी है। गौरतलब है कि नवाब मुराद मियां एवं नवाब काजिम अली खान के बीच सगा खूनी रिश्ता होने के बाद भी मनमुटाव की ऐसी खाई है जो शायद ही भर पाना संभव हो।
ऐसा करने पर हासिल हो सकती है कामयाबी
समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आजम खान पर दर्जनों मुकदमे के चलते उनका सियासी कैरियर दांव पर है तो वहीं भाजपा के वरिष्ठ नेता पूर्व केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी भी वक्त के साथ अपनी पार्टी में अपना सियासी कद लगातार होते चले जा रहे हैं। मौजूदा हालात में 28 लाख की जनसंख्या वाले रामपुर में राष्ट्रीय एवं प्रदेश स्तर की राजनीति की कमी सियासी गलियारों में महसूस की जा रही है। अब ऐसे वक्त में नवाब मुराद मियां के राजनीति में आने के संकेत कम मायने नहीं रखते हैं। हालांकि यह बात अलग है कि नवाब मुराद मियां को भले ही अपने पुरखों के नाम का सहारा मिल जाए लेकिन रियासती दौर बदल चुका है और जनता जनार्दन जरूरी के बजाय लोकतंत्र में आस्था व्यक्त करती चली आ रही है। ऐसी स्थिति में नवाब मुराद मियां को जनता के बीच पहुंचकर ही अपनी पैठ बनानी होगी और लोगों के दिलों के साथ ही जनता के विश्वास को भी जीतना होगा। तब कहीं जाकर उन्हें सियासी मैदान में कामयाबी हासिल हो सकती है।
रिपोर्ट- मुजस्सिम खान, यूपी
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