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New parliament : दलित -पिछड़ी जाति के पुजारियों ने कराई संसद भवन की पूजा

 

हमारे देश में सामाजिक बदलाव की एक नई इबारत लिखी जा रही है और इसकी शुरुआत भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने की है। वहीं एक वर्ग ऐसा है जो इससे खुश नहीं है क्योंकि वह मोदी विरोध में इस कदर डूब चुका है कि अब वह किसी भी नीचता के स्तर पर जाने के लिए तैयार है।

3 दिनों पहले ही लोकतंत्र के नए मंदिर यानी नए संसद भवन का उद्घाटन नरेंद्र मोदी के हाथों किया गया है। इस उद्घाटन समारोह की सबसे खास बात यह रही कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न सिर्फ पवित्र सेंगोल यहां स्थापित किया। बल्कि कुरान के सूरह रहमान की भी तिलावत करा कर नए संसद भवन का श्रीगणेश कराया। इस तरह पूरे भारत के लिए 28 मई का दिन एक ऐतिहासिक क्षण बना लेकिन फिर भी यह प्रक्रिया राजनीतिक विवाद से अछूती नहीं रह गई है क्योंकि बीजेपी सरकार पर ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देने के आरोप लगाए गए। इसमें समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव और विवादित नेता स्वामी प्रसाद मौर्य सबसे अव्वल रहे।

सिर्फ रूढ़िवादी ब्राह्मण गुरुओं को बुलाया गया- स्वामी प्रसाद मौर्य

स्वामी प्रसाद मौर्य ने सेंगोल की स्थापना को लेकर एक विवादित बयान दिया। उनका दावा था कि नए संसद भवन में सेंगोल की स्थापना के लिए सिर्फ रूढ़िवादी ब्राह्मण गुरुओं को ही बुलाया गया था। उन्होंने अपने ट्विटर हैंडल पर लिखा कि सेंगोल राजदंड की स्थापना पूजन में केवल दक्षिण के कट्टरपंथी ब्राह्मण गुरुओं को बुलाया जाना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसा करके स्वामी प्रसाद मौर्या दरअसल हिंदू धर्म में फूट डालना चाहते थे। समाज के 2 बड़े वर्ग को आपस में लड़वाना उनका मकसद था। उनकी नीयत थी कि दोनों वर्गों में नफरत बढ़े ताकि वह इस पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक सकें।

खैर, उनकी राजनीतिक सोच थी उन्होंने अपनी उसी सोच का मुज़ाहिरा किया लेकिन वह यह बात भूल गए कि मौजूदा सरकार पहले की सरकारों की तरह बांटने का नहीं बल्कि जोड़ने का काम करती है। वह दौर कुछ अलग था जब समाज में नफरत फैलाकर वोट बटोरे जाते थे। मौजूदा सरकार तो पिछली सरकारों की गलतियां सुधारने का काम कर रही है।

स्वामी प्रसाद मौर्य कह रहे थे कि सरकार ब्राह्मणवाद को बढ़ावा दे रही है लेकिन शायद उन्हें यह मालूम नहीं कि नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह में जिन गुरुओं को बुलाया गया था वह ब्राह्मण समुदाय से नहीं बल्कि दलित और पिछड़े समुदाय से आते हैं। जिन गुरुओं को बुलाया गया था वह अदिनम कहलाते हैं। अदिनम को जो समुदाय चलाते हैं, वह पिछड़ी जाति और अन्य पिछड़ी जाति की श्रेणियों में आते हैं। तमिल साहित्य का उनका एक गौरवशाली इतिहास रहा है। अदिनम भगवान शिव के उपासक हैं।

क्या है अदिनम

अदिनम का मतलब एक मठ या एक मठ के पुजारी हो सकते हैं। तमिलनाडु में अदिनम संत गैर-ब्राह्मण शैव मठों में रहने वाले लोग हैं। तमिलनाडु में लगभग 20 प्रमुख आदिनम हैं  अदिनम पुजारी ब्राह्मण नहीं होते। हर अदिनम की जाति अलग होती है, उनकी क्षेत्रीय विशेषता भी अलग होती है। पेरुर और सिरूर के अदिनम पश्चिमी तमिलनाडु में बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। ये जाति से गौंडार होते हैं, तमिलनाडु के चेट्टिनाड इलाके में कुंद्राकुडी अदिनम ज्यादा पाए जाते हैं। इनकी अगुआई चेट्टियार करते हैं, प्रत्येक अदिनम के अपने इतिहास के बारे में अलग -अलग दावे हैं। चोल चेरा और पांडिया प्रमुख अदिनामों को संरक्षण देते हैं। मदुरै अदिनम का कहना है कि उनका इतिहास 1,300 साल पुराना है।

एक लंबे समय से अदिनम शैव दर्शन और तमिल साहित्य को बढ़ावा देते आए हैं। पिछली कुछ सदियों में इन्हीं पुजारियों की मदद से दुर्लभ ताड़ के पत्तों की पांडुलिपियों का पता लगाया जा सका है। सांस्कृतिक परंपरा को बढ़ावा देने के अलावा कई अति-प्राचीन मंदिरों का संचालन अभी भी अदिनमों के हाथों में है।

अदिनम में संतों का चयन कैसे किया जाता है

अदिनम में संतों का चयन आखिर कैसे किया जाता है। अदिनम या अधिनाकार्थ बनने के लिए दशकों की कठोर गुरुकुल शिक्षा, तमिल भक्ति साहित्य और सेवारत प्रमुखों की सेवा करनी होती है। भिक्षु 'पंडारम' के रूप में अपनी शुरुआत करते हैं। इसके बाद 'थंबुरान' और 'मुख्य थंबुरान' के तौर पर नामित होते हैं। शासक संत आमतौर पर अपने प्रमुख शिष्यों में से किसी एक को अपना उत्तराधिकारी चुनते हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य ने ऐसे संतों के बारे में तुच्छ बातें लिखकर इन पवित्र अदिनमों और हिंदू धर्म की विविधता का अपमान किया है।

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